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सुधांशु त्रिवेदी बोले-मैकाले-मार्क्स की शिक्षा प्रणाली से हमें मूर्ख बनाया:कहा- भारत मदर ऑफ डेमोक्रेसी रहा और आगे भी रहेगा

राज्यसभा सांसद डॉ. सुधाशु त्रिवेदी ने कहा कि देश-दुनिया की कई ताकतों को बदलता भारत पच नहीं रहा है। आए दिन नए-नए षडयंत्र रचे जा रहे है। वो नहीं चाहते भारत फिर विश्वगुरू कहा जाए। इसका बड़ा कारण यह है कि हम गुलामी की मानसिकता से जकड़े हुए है। हमारे दिमाग में वो भरा गया, जिसकी हमें जरूरत नहीं थी। यही कारण है कि मैकाले और माक्र्स की शिक्षा से आगे हम सोच नहीं पा रहे है। लेकिन, अब भारत बदल रहा है। ऑटोमोबाइल सेक्टर में हम दुनिया में तीसरे नम्बर पर है। मोबाइल मैन्युफैक्चरिंग में भारत दूसरे स्थान पर पहुंच चुका है। बड़ी बात यह है कि अर्थव्यवस्था के मामले में हम ब्रिटेन को पीछे छोड़ चुके है। अंग्रेजी हुकूमत को अब भारतीय चला रहा है। बदलते भारत में ऐसे कई उदाहरण है। लेकिन, कुछ वामपंथी ताकतों को यह पच नहीं रहा है। पर क्या फर्क पड़ता है। हम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व मेें शेरों की तरह आगे बढ़ रहे है। समृद्धि, स्वाभिमान और शौर्य के साथ भारत के इस बदलाव को देख रहे है।

 

डॉ. त्रिवेदी नवोन्मेष फाउंडेशन जयपुर की ओर से आयोजित वैचारिक मंथन के सत्र को सम्बोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि वर्ष 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का संकल्प लेकर हम आगे बढ़ रहे है। समय बदलाव का है, परिवर्तन का है। यह बात हम नहीं, दुनिया के अधिकांश देश भारत को उभरता, हर क्षेत्र में समरसता के साथ समृद्धता की ओर बढते देखकर कहने मानने लगे है। दुनिया की बड़ी-बड़ी शक्तियां आकांक्षी भारत के सहयोग को आगे आ रही है। यह संभव हुआ है एकता, अखंड़ता और वसुधैव कटुम्बकम की भावना के साथ आगे बढने से।

 

उन्होंने कहा कि हम आजादी का अमृतकाल मना रहे है और इस काल में हम सनातन की अनदेखी नहीं कर सकते। क्योंकि, शरीर में जैसे आत्मा होती है, वैसे ही सृष्टि की आत्मा भारत है। और जहां तक भारत है, वह सत्य है और शाश्वत है। हमारे मिटने के बाद ही दुनिया के दूसरे धर्म और संस्कृति का प्रभाव दुनिया पर देखने को मिलेगा। लेकिन, ऐसा कभी नहीं होगा। क्योंकि जिस देश का कलेण्डर नक्षत्र से शुरू होता है, उसको कौन मिटा सकता है। मुझे बताएं, आज भी सितम्बर, अक्टूबर और नवम्बर महीने को अंग्रेजी कलेण्डर में किसी व्यक्ति के नाम से नहीं जाना जाता। इसके पीछे कारण यह नाम भारत ने ही दिए है। दुनिया में जनवरी से नहीं, मार्च से ही पहला महीना शुरू होता है। इसलिए भारत में हर चार साल के बाद पुरूषोत्तम मास आता है। मैकाले और माक्र्स की शिक्षा पद्धति के जरिए हमें मूर्ख बनाया गया। लेकिन, अब हर बात का जबाव देने का वक्त आ चुका है। पहले भी भारत मदर ऑफ डेमोक्रेसी रहा है अब भी भारत मदर ऑफ डेमोक्रेसी है। इसी कारण यहां धर्मग्रंथो पर खुली चर्चा होती है। दुनिया में दूसरे किसी देश में आजादी के साथ धर्मग्रंथो पर अपने विचार रखने अथवा अपनी बात कहने पर सर तन से जुदा कर दिए जाते है। उन्होंने बताया कि रामायण, महाभारत काल में कोई भेदभाव नहीं था। कोई जाति व्यवस्था नहीं थी। सब कुछ समान था। लेकिन, असमानता के बीज बोने का काम ब्रिटिश हुकूमत ने किया है। ब्रिटिश संसद ने बकायदा जातियों का क्लासीफिकेशन किया है। 1901 तक 378 जातियां दुनिया में थी। जो 1931 में बढ़कर 4 हजार एक सौ से ज्यादा हो गई। आज देश विरोधी ताक ते नारे लगाती है ओबीसी, एससी, एसटी बचाओं, लेकिन, 1990 तक दुनिया में कोई ओबीसी शब्द था ही नहीं। आज कहा जा रहा है कि भारत दूसरे देशों के चुनाव व्यवस्था को प्रभावित कर रहा है। अब सवाल यह उठता है कि अब तक भारत पर ऐसे आरोप क्यों नहीं लगे? इसका मतलब है कि भारत उस हैसियत में पहुंच गया है, जिससे दुनिया प्रभावित हो रही है। उन्होंने कहा कि रामकाल में भी सभी वर्ग का उत्थान हुआ और इस काल में वहीं घटित होता दिख रहा है। एक ओर नए संसद भवन का निर्माण हो रहा है। तो दूसरी ओर रामलला का भव्य मंदिर बन रहा है। उन्होंने कहा कि आज कुछ लोग कुर्ते के ऊपर जनेऊ धारण करके अपने को हिन्दू साबित करने में लगे हुए है और जनेऊ पर किसी वर्ग विशेष का अधिकार भी नहीं है। यह बात हनुमान चालीसा में लिखी हुई है। ...कांधे मूंज जनेऊ सांजे। यानी भगवान श्री राम को तो हनुमान जी वनवास के दौरान मिले थे। वनवासी हनुमान यानी पिछडे से भी पिछड़ी स्थिति की कल्पना की जा सकती है। लेकिन, हनुमान का जनेऊ धारण करना इस बात को दर्शाता है कि जनेऊ पर उस काल से ही सबका समान अधिकार रहा है। ऐसे कई उदाहरण है जिनको हम हमारे धर्मग्रंथो में पढ़ते है, लेकिन, उन पर गौर नहीं करते। इस दिशा में हमें सोचने और चिंतन करने की जरूरत है। हम अनादिकाल से आदि शक्ति के उपासक रहे है। इसका अर्थ यह है भारत की साक्षरता दर दुनिया के बाकि देशों से कही ज्यादा थी। विलियम एडम की रिपोर्ट को देखा जाएं तो 200 साल पहले भारत की साक्षरता दर 97.7 प्रतिशत थी। 1850-52 के आसपास देश में पहले विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। इस विश्वविद्यालय से पासआउट होने वालों ने 30 साल बाद 1885 में कांग्रेस की स्थापना की। यानी कि एक पीढ़ी को कुछ सिखाने में इतना समय तो लगता है। उन्होंने कहा कि सच कुछ ओर है और हमें बताया कुछ ओर। देश की नई पीढ़ी को इसे समझने की जरूरत है।

आत्मा रक्षा प्रत्येक शक्ति का अधिकार इससे पूर्व आर्या सर्व गुण सम्पन्न विषयक सत्र को ऑप इंडिया की संस्थापक और पत्रकार नुपूर जे. शर्मा ने सम्बोधित किया। उन्होंने नारी सुरक्षा पर बेबाकी से अपनी बात रखी। उन्होने कहा कि भाई, परिवार, पड़ोस, समाज, माता-पिता, पति अपने कर्तव्यों और धर्म का पालन ठीक तरह से करें तो नारी की सुरक्षा को कभी आंच नहीं आ सकती। लेकिन, पाश्चात्य संस्कृति ने हमारी सोच को बदलना शुरू कर दिया। सनातन में एक विवाहिता को धर्म पत्नी कहा गया है। जबकि, इस्लाम में औरत। यह शब्द औरत के बॉडी पार्ट की ओर इशारा करता है। उन्होंने कहा कि इस्लाम तो धर्म है ही नहीं। इस्लाम महज एक सम्प्रदाय है। जिसे हम धर्म समझने की भूल कर रहे हैै। उन्होंने कहा कि हम कब तक बर्दाश्त करते रहेंगे। अत्याचार का प्रतिकार करने का वक्त आ चुका हेै। यह सही है कि हम किसी को मारेंगे नहीं, लेकिन, अपनी प्रतिरक्षा से भी पीछे नहीं हटेंगे। जिस दिन ऐसा होना शुरू हो गया, उस दिन नारी की अस्मिता को कोई खतरा नहीं होगा। उन्होंने आपबीती सुनाते हुए कहा कि संकट के समय कई भाई खड़े हो जाते है। जिनसे हमारा दूर तक वास्ता नहीं होता। ऐसा मैने अपने साथ हुई घटना के दौरान देखा है। आरएसएस, बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद के स्वयं सेवकों ने मुझे संकट में संभाला है। स्वभाव है कि जब तक हमारे ऊपर नहीं बीतती, तब तक उस ओर सोचते तक नहीं है। इसी बात का वर्तमान में कुछ ताकते फायदा उठा रही है। बड़ी बात यह है कि आजकल यूथ इस चर्चा का हिस्सा नहीं बनना चाहता। लेकिन, यह जरूरी है। हिंदू के साथ हिंदू ही खड़ा नहीं होगा तो कौन रहेगा? हमें अपने इको सिस्टम को बदलने की जरूरत है। लेकिन, बदलाव ऐसा जिसे हमें भारतीय सनातन संस्कृति पर और ज्यादा गौरव महसूस हो। उन्होंने एक सवाल के जवाब में कहा कि घर परिवार सुखी रहेगा तभी समाज सुखी रहेगा। प्रकृति में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसका वैज्ञानिक आधार नहीं हो। माथे की बिंदिया, कानों में बाली, नाक में नथ, पैरों की पायल, मांग में सिंदूर सबके पीछे शरीर को स्वस्थ रखने और संस्कृति की संवाहक बनने के लॉजिक छिपे हुए है।

कृषि से आगे देखने की जरूरत वैचारिक चर्चा में समृद्धि से स्वावलंबन की ओर सत्र को सम्बोधित करते हुए जेएनयू के आणविक चिकित्सा के प्रोफेसर आंनद रंगनाथन ने कहा कि समय कृषि से आगे सोचने का है। देश की 44 प्रतिशत लेबर कॉस्ट कृषि से जुड़ी है। किसी साल सूखा, बाढ़ सहित दूसरी प्राकृतिक आपदा आ जाती है तो पूरा तंत्र इससे प्रभावित होता है। कभी आपने पढ़ा है कि बारिश से आईटी सेक्टर को नुकसान पहुंचा हो। गड्ढे खोदने को हम रोजगार नहीं कह सकते। इससे देश एडंवास नहीं बनेगा। सरकारे कहती है कि हमने इतने लोगों को रोजगार दिया। लेकिन, इस बात का कोई डाटा बेस नहीं है। फलेक्सिबल इकॉनॉमी पावर बनने के लिए हमें विज्ञान से आगे सोचने की जरूरत है। विज्ञान ने समय-समय पर कई इनोवेशन दिए। लेकिन, इनोवेशन को आगे बढ़ाने का काम सरकारों के हाथ में है। ऐसे में विज्ञान का भविष्य राजनीति विज्ञान से तय होता है। जिसकी हमें जरूरत नहीं है, वह इनोवेशन हम पर थोप दिया जाता है। और जो इनोवेशन होता है, उसे पीछे छोड़ दिया जाता है। बीटी कॉटन आया, उस वक्त इसका विरोध किया गया। लेकिन, आज गुजरात में 99 प्रतिशत किसान बीटी कॉटन की खेती कर रहे है। इसी तरह जीएम सरसों और बीटी ब्रींजल का विरोध हो रहा है। वैज्ञानिक दृष्टि से यह इनोवेशन है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। जीएम फसल तैयार करने में वैज्ञानिक को कितना समय लगा होगा। लेकिन, हम एक ही झटके में इनावेशन को देश विरोधी कहना शुरू कर देते है। उन्होंने कहा कि कृषि में सबकुछ किसानों की इच्छा पर छोड़ दिया जाएं तो कृषि में भारत की तस्वीर बदलते समय नहीं लगेगा। उन्होंने एक सवाल के जबाब में कहा कि लोकतंत्र खतरे में तब होगा जब राहुल गांधी को जेल भेज दिया जायेगा।

 

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