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इंदिरा गांधी के दांव के बाद आज 5वें राष्ट्रपति बने वीवी गिरी, चित्त हुई कांग्रेस, दिग्गजों को लगा तगड़ा झटका

24 अगस्त को वीवी गिरी ने देश के पांचवें राष्ट्रपति के तौर पर शपथ ली. लेकिन उनका राष्ट्रपति बनना एक ऐसी सनसनीखेज घटना थी, जिसके बाद देश में सियासत का एक अलग तरह का दौर शुरू हुआ. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस चुनाव में अपनी ही पार्टी यानि कांग्रेस के आधिकारिक प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी को हराने का काम किया था. कांग्रेस सिंडिकेट के दिग्गज नेता सकते में आ गए कि इंदिरा गांधी क्यों अपनी ही पार्टी के खिलाफ जा रही हैं. हालांकि ये इंदिरा गांधी का सोचासमझा कदम था, जिसके बाद सियासी तौर पर उन्होंने ना केवल अपना कद बढ़ाया बल्कि कांग्रेस को तोड़कर अपनी कांग्रेस बना ली.

03 मई 1969 को देश के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन की हार्ट अटैक से मृत्यु हो गई. इसके बाद नए राष्ट्रपति का चुनाव हुआ. ये वही चुनाव है जिसे अब तक का देश में राष्ट्रपति पद के लिए सबसे चर्चित चुनाव माना जाता है. जिसमें तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी के खिलाफ जाकर अपना उम्मीदवार खड़ा किया. मैदान में कांग्रेस का भी उम्मीदवार था तो स्वतंत्र पार्टी और जनसंघ ने मिलकर अपने एक मजबूत प्रत्याशी को लड़ाया था. कई निर्दलीय भी थे.

ये चुनाव जिस समय हुआ, तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अपनी ही पार्टी में पुराने नेताओं से जबरदस्त चुनौती मिलना अब भी जारी थी. वह किसी भी हालत में ये संदेश देना चाहती थीं कि मौजूदा पार्टी से कहीं दमदार उनकी अपनी छवि है. वो ताकतवर नेता हैं. वो ये भी दिखाना चाहती थीं कि वह ऐसी राष्ट्रीय नेता हैं, जिन्हें पार्टी की नहीं बल्कि पार्टी को उनकी जरूरत है.

इससे पहले इंदिरा गांधी वित्त मंत्री मोरारजी देसाई के विरोध के बाद भी 14 बैंकों के राष्ट्रीयकरण का फैसला कर चुकी थीं. साथ ही देसाई को वित्तमंत्री के पद से भी हटा दिया था. सरकार के नियंत्रण में लेने के 06 महीने के अंदर बैंकों का व्यापक विस्तार हुआ. करीब 1100 नई शाखाएं खोली गईं. जिसमें ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में थीं.

जब जाकिर हुसैन का राष्ट्रपति पद पर रहते हुए आकस्मिक निधन हुआ तो ये तय था कि दोबारा राष्ट्रपति के चुनाव करने ही होंगे. 14 जुलाई 1969 को चुनाव आयोग ने इस चुनाव की घोषणा कर दी. 24 जुलाई तक नामांकन होना था और 16 अगस्त को मतदान. घोषणा होते ही राष्ट्रपति चुनाव की हलचल जिस तरह से सियासी जगत में शुरू हुई वो तो वाकई अभूतपूर्व थी. पहले कभी ऐसी जोर आजमाइश इन चुनावों में नहीं देखी गई थी.
पूरे देश का ध्यान राष्ट्पति के चुनाव पर केंद्रीय हो गया. जिसके लिए संसद और राज्यों की विधानसभाओं को मतदान करना था. कांग्रेस पार्टी ने अपना आधिकारिक उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी को बनाया, जो लोकसभा के पूर्व स्पीकर रह चुके थे. लोकप्रिय मजदूर यूनियन लीडर वीवी गिरी ने निर्दलीय चुनाव लड़ने का फैसला किया. जबकि स्वतंत्र पार्टी, जनसंघ और अन्य विपक्ष के उम्मीद थे नेहरू काल में वित्त मंत्री रह चुके चिंतामन द्वारिकानाथ देशमुख.

पार्टी की परंपरा और अनुशासन का उल्लंघन करते हुए इंदिरा गांधी ने तय किया कि वो वीवी गिरी का समर्थन करेंगी. हालांकि इस फैसले को सार्वजनिक नहीं किया गया था. लेकिन उन्होंने ये संदेश अपने समर्थकों तक पहुंचा दिया था और वो देश के युवा सांसदों को इस बात के लिए राजी करना शुरू कर चुके थे कि गिरी का समर्थन करें.

कांग्रेस पार्टी को मालूम चल गया कि इंदिरा क्या कर रही हैं, ऐसे में जब पार्टी के अध्यक्ष निजलिंगप्पा ने उन पर दबाव डाला कि वो खुलकर पार्टी के उम्मीदवार रेड्डी की उम्मीदवारी का समर्थन करें तो इंदिरा ने ऐसा करने से मना कर दिया. अब कांग्रेस की स्थिति बहुत अजीब हो गई. प्रधानमंत्री ही पार्टी उम्मीदवार को हराने में लगी थीं.

ऐसे में निजलिंगप्पा ने स्वतंत्र पार्टी और जनसंघ से अपील की कि वो देशमुख के बदले रेड्डी का समर्थन करें. बस इंदिरा गांधी को जो मौका चाहिए था, वो मिल गया. उन्होंने निजलिंगप्पा की इस अपील को अपने फेवर में इस्तेमाल किया. ये प्रचारित किया जाने लगा कि निजलिंगप्पा विपक्षी पार्टियों के साथ हाथ मिला रहे हैं. उन्होंने इस मुद्दे पर कांग्रेस की बैठक बुलाने की मांग की, जिसे खारिज कर दिया गया.

16 अगस्त को राष्ट्रपति चुनाव के मतदान से ठीक चार दिन पहले श्रीमती इंदिरा गांधी ने इस मामले पर पहली बार बयान दिया. उन्होंने बगैर नाम लिए पार्टी सांसदों और विधायकों से अंतरात्मा की आवाज पर वोट देने की अपील की. उनका इस संदेश के पीछे क्या छिपा था, ये हर किसी ने भांप लिया. उनका ये कहना साफतौर पर पार्टी के उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी के खिलाफ वोट नहीं देकर प्रतिद्वंद्वी निर्दलीय उम्मीदवार को समर्थन देने का खुला आह्वान था.

इंदिरा गांधी जो चाहती थीं वही हुआ. बड़ी संख्या में पार्टी के सांसदों और विधायकों ने वीवी गिरी को अपना समर्थन दिया. अमूमन सारे बुजुर्ग कांग्रेसी नेताओं ने रेड्डी को समर्थन दिया. कई राज्यों में यही हाल रहा. ये कांटे का चुनाव था. दूसरे चरण में वीवी गिरी को एक फीसदी से कुछ ज्यादा वोटों से जीत मिल गई. इसके बाद प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष के बीच तीखे आरोपों वाले पत्राचार की शुरुआत हुई.

वीवी गिरी को कुल 420,077 वोट वैल्यू हासिल हुई तो नीलम संजीव रेड्डी को 405427 वैल्यू वोट जबकि स्वतंत्र पार्टी और जनसंघ के साझा उम्मीदवार चिंतामन द्वारिकानाथ देशमुख को 112,769 वैल्यू वोट मिले. इसके अलावा इस चुनाव में प्रतापगढ़ के स्वतंत्रता सेनानी चंद्रदत्त सेनानी, पंजाब की राजनीतिज्ञ गुरचरण कौर, बाम्बे के नेता पीएन राजभोग भी निर्दलीय के तौर पर मैदान में थे. वहीं चौधरी हरिराम ने फिर चुनाव लड़ा और 125 वोट हासिल किए. इसके अलावा खूबी राम, कृष्ण कुमार चटर्जी भी दोबारा चुनाव लड़े लेकिन कोई वोट नहीं हासिल कर पाए.

मतलब साफ था कि इंदिरा को जो करना था वो डंके की चोट पर कर चुकी थीं. उन्होंने ये अंदाज भी लगा लिया था कि इसका नतीजा क्या होने वाला है. लिहाजा इसकी तैयारी भी उन्होंने पहले से कर रखी थी. कांग्रेस अध्यक्ष को भी अंदाज था कि इंदिरा गांधी के खिलाफ कोई भी कदम पार्टी के लिए विस्फोटक हो सकता है लेकिन इंदिरा और पार्टी अध्यक्ष के बीच तनातनी इतनी बढ़ चुकी थी कि आर या पार होना ही था. इंदिरा भी यही चाहती थीं.

12 नवंबर को उन्हें अनुशासनहीनता के आरोप में पार्टी से निकाल दिया गया लेकिन तब तक बहुत से सांसद उनके साथ आ चुके थे. दिसंबर में पार्टी के दोनों खेमों ने अपनी मीटिंग बुलाई. कांग्रेस की मीटिंग अहमदाबाद में हुई तो इंदिरा खेमे की मुंबई में. पार्टी टूट गई. मूल पार्टी को कांग्रेस ओ यानि कांग्रेस आर्ग्नइजेशन कहा जाने लगा तो इंदिरा ने अपने गुट को कांग्रेस आर यानि कांग्रेस रिक्विजनीस्ट (सुधारवादी) कहा.

इंदिरा गांधी का शक्ति प्रदर्शन कामयाब रहा. कांग्रेस कमेटी के 705 सदस्यों में 446 ने इंदिरा खेमे के अधिवेशन में हिस्सा लिया. संसद में दोनों सदनों के कुल 429 कांग्रेसी सांसदों में 310 प्रधानमंत्री के साथ आ गए. लोकसभा में इंदिरा के पास 220 लोकसभा सांसद थे यानि बहुमत के लिए 45 सांसदों की जरूरत थी. वाम दलों और निर्दलियों ने उन्हें खुशी खुशी समर्थन दे दिया.

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