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जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोल - मुकेश

हिन्दी फिल्मी गीतों को अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि दिलाने वाले पहले गायक मुकेश को गुजरे सैंतालीस बरस हो चुके हैं. लेकिन आज भी उनकी जगह भरी नहीं जा सकी है। अपने छत्तीस साल के कैरियर में उन्होंने 1500 गाने ही गाए लेकिन उनका लगभग हर गाना हिट रहा।

इनका जन्म 22 जुलाई 1923 को लुधियाना के जोरावर चंद माथुर और चांद रानी के घर हुआ था। इनकी बड़ी बहन संगीत की शिक्षा लेती थीं और मुकेश बड़े चाव से उन्हें सुना करते थे। मोतीलाल के घर मुकेश ने संगीत की पारम्परिक शिक्षा लेनी शुरू की, लेकिन इनकी दिली ख्वाहिश हिन्दी फ़िल्मों में बतौर अभिनेता प्रवेश करने की थी।

मुम्बई आने के बाद इन्हें 1941 में “निर्दोष” फ़िल्म में बतौर एक्टर सिंगर पहला ब्रेक मिला। इंडस्ट्री में शुरुआती दौर मुश्किलों भरा था। लेकिन के एल सहगल को इनकी आवाज़ बहुत पसंद आयी। इनके गाने को सुन के एल सहगल भी दुविधा में पड़ गये थे। 40 के दशक में मुकेश का अपना पार्श्व गायन शैली था। नौशाद के साथ उनकी जुगलबंदी एक के बाद एक सुपरहिट गाने दे रही थी। उस दौर में मुकेश की आवाज़ में सबसे ज़्यादा गीत दिलीप कुमार पर फ़िल्माए गये। 50 के दशक में इन्हें एक नयी पहचान मिली, जब इन्हें राजकपूर की आवाज़ कहा जाने लगा। कई साक्षात्कार में खुद राज कपूर ने अपने दोस्त मुकेश के बारे में कहा है कि मैं तो बस शरीर हूँ मेरी आत्मा तो मुकेश है।
पार्श्व गायक मुकेश को फ़िल्म इंडस्ट्री में अपना मकाम हासिल कर लेने के बाद, कुछ नया करने की चाह जगी और इसलिए इन्होंने फ़िल्म निर्माता (प्रोड्यूसर) बन गये। साल 1951 में फ़िल्म ‘मल्हार’ और 1956 में ‘अनुराग’ निर्मित की। अभिनय का शौक बचपन से होने के कारण ‘माशूका’ और ‘अनुराग’ में बतौर हीरो भी आये। लेकिन बॉक्स ऑफिस पर ये दोनों फ़िल्में फ्लॉप रहीं। कहते हैं कि इस दौर में मुकेश आर्थिक तंगी से जूझ रहे थे। बतौर अभिनेता-निर्माता मुकेश को सफलता नहीं मिली। गलतियों से सबक लेते हुए फिर से सुरों की महफिल में लौट आये। 50 के दशक के आखिरी सालों में मुकेश फिर पार्श्व गायन के शिखर पर पहुँच गये। यहूदी, मधुमती, अनाड़ी जैसी फ़िल्मों ने उनकी गायकी को एक नयी पहचान दी और फिर ‘जिस देश में गंगा बहती है’ के गाने के लिए वे फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार के लिए नामांकित हुए।
60 के दशक की शुरुआत मुकेश ने कल्याणजी-आनंदजी, के डम-डम डीगा-डीगा, नौशाद का मेरा प्यार भी तू है, और एस. डी. बर्मन के नग़मों से की और फिर राज कपूर की फ़िल्म संगम में शंकर-जयकिशन द्वारा संगीतबद्ध किया गाना, जिसके लिए वह फिर से फ़िल्मफेयर के लिए नामांकित हुए।
60 के दशक में मुकेश का कॅरिअर अपने चरम पर था और अब मुकेश ने अपनी गायकी में नये प्रयोग शुरू कर दिये थे। उस वक्त के अभिनेताओं के मुताबिक उनकी गायकी भी बदल रही थी। जैसे कि सुनील दत्त और मनोज कुमार के लिए गाये गीत। 70 के दशक का आगाज़ मुकेश ने जीना यहाँ मरना यहाँ गाने से किया। उस वक्त के हर बड़े फ़िल्मी सितारों की ये आवाज़ बन गये थे। साल 1970 में मुकेश को मनोज कुमार की फ़िल्म पहचान के गीत के लिए दूसरा फ़िल्मफेयर मिला और फिर 1972 में मनोज कुमार की ही फ़िल्म के गाने के लिए उन्हें तीसरी बार फ़िल्मफेयर पुरस्कार दिया गया। अब मुकेश ज़्यादातर कल्याणजी-आंनदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और आर. डी. बर्मन जैसे दिग्गज संगीतकारों के साथ काम कर रहे थे। 1974 में मुकेश को रजनीगन्धा फ़िल्म में “कई बार यूँ भी देखा है” गाना गाने के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिला। उन्होंने अमिताभ, राजेश खन्ना, धर्मेन्द्र, विनोद मेहरा और फ़िरोज़ ख़ान जैसे  अभिनेताओं के लिए भी इन्होंने गाने गाये। 70 के दशक में भी इन्होंने अनेक सुपरहिट गाने दिये। साल 1976 में यश चोपड़ा की फ़िल्म कभी कभी के इस शीर्षक गीत के लिए मुकेश को अपने कॅरिअर का चौथा फ़िल्मफेयर पुरस्कार मिला और इस गाने ने उनके कॅरिअर में फिर से एक नयी जान फूँक दी। राजकपूर की फिल्म 'सत्यम शिवम सुंदरम्" के गाने"चंचल निर्मल शीतल" की रिकार्डिंग पूरी करने के बाद वह अमरीका में एक कंसर्ट में भाग लेने के लिए चले गए जहां 27 अगस्त 1976 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। उनके अनन्य मित्र राजकपूर को जब उनकी मौत की खबर मिली तो उनके मुंह से बरबस निकल गया, मुकेश के जाने से मेरी आवाज और आत्मा, दोनों चली गई।
मुकेश के गाए गीतों की संवदेनशीलता उनकी निजी जिन्दगी में दिखाई देती थी। वह एक सरल ह्दय के संवदेशनशील इंसान थे, जो दूसरों के दुख-दर्द को अपना समझकर उसे दूर करने का प्रयास करते थे। दूसरों के प्रति हमदर्दी और संवेदनशीलता की इस भावना रखते थे। 

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