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राजनीती की नर्सरी पर रोक और विधानसभा चुनावो का सियासी कनेक्शन क्या है

छात्रसंघ चुनावों (Student Union Elections) को राजनीति की पहली पाठशाला होने के साथ लोकतंत्र (Democracy) को सीखने-समझने की नर्सरी माना जाता है. प्रदेश के कई नेता (Leaders) इसी नर्सरी से दांव-पेंच सीखकर सत्ता और संगठन में बड़े-बड़े पदों पर पहुंचे हैं. देश-प्रदेश में मंत्री, सांसद, विधायक और मुख्यमंत्री (Chief Minister) तक देने वाली छात्र राजनीति (Student Politics) इस बार ताले में बंद है. इस रोक को एक दिलचस्प संयोग से भी जोड़कर देखा जा रहा है.

दिलचस्प तथ्य यह भी है कि छात्रसंघ चुनावों पर रोक लगाने का आदेश जारी करने वाले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत खुद भी छात्र राजनीति से निकलकर सीएम पद तक पहुंचे हैं और कांग्रेस की केंद्र की सियासत का सशक्त हिस्सा रहे हैं.

राजस्थान की राजनीति में छात्रसंघ का चुनाव का एक संयोग ऐसा भी है, जो राज्य में सरकार बनने और बिगड़ने से जुड़ा है. दरअसल, छात्रसंघ चुनाव और उसी साल हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे को देखें तो अजीब संयोग दिखेगा. राजस्थान विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनाव में जब-जब एबीवीपी को जीत मिली, तब-तब कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में बहुमत नहीं मिला है. राजस्थान में पिछले दो दशकों का सियासी संयोग यही रहा है.

साल 2003 में राजस्थान विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनाव में एबीवीपी के प्रत्याशी जीतेंद्र मीणा अध्यक्ष चुने गए थे. उसी साल विधानसभा चुनाव हुए तो कांग्रेस को करारी मात खानी पड़ी थी. साल 2013 में आरयू के छात्रसंघ का चुनाव में एबीवीपी के कानाराम जाट अध्यक्ष चुने गए. उसी साल विधानसभा के चुनाव हुए तो कांग्रेस को बुरी तरह शिकस्त मिली थी. इसके बाद साल 2018 के छात्रसंघ चुनाव में जब निर्दलीय विनोद जाखड़ अध्यक्ष बने तो कांग्रेस जीतकर सबसे बड़ी पार्टी तो बनी. कांग्रेस ने बसपा विधायकों के समर्थन जुटाकर सरकार बनाया था.

एक नजर उन छात्र नेताओं पर डालते हैं, जो यूनिवर्सिटी की राजनीति करने के बाद मुख्यधारा की सियासत में बड़े पदों पर पहुंचे. राजस्थान यूनिवर्सिटी में छात्र राजनीति करने वाले बाद में कई बड़े नेता बने और देश-प्रदेश में नाम कमाया. गहलोत सरकार में मंत्री प्रताप सिंह खाचरियावास और महेश जोशी पहले इसी यूनिवर्सिटी में छात्र राजनीति में थे. नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़, विधायक अशोक लाहौटी, पूर्व मंत्री कालीचरण सर्राफ, विधायक राजपाल सिंह शेखावत ने छात्र राजनीति में भी नाम कमाया था. इनके अलावा पूर्व मंत्री रघु शर्मा, पूर्व मंत्री चंद्रशेखर, पूर्व मंत्री ज्ञान सिंह चौधरी, रालोपा संयोजक हनुमान बेनीवाल, अश्क अली टांक, राजकुमार शर्मा, जितेंद्र मीणा जैसे नेताओं की लंबी फेहरिस्त है, जो पहले छात्र राजनीति में थे.

गहलोत सरकार ने आज भले ही छात्र संघ चुनाव पर रोक लगाई हो, लेकिन एक वक्त था जबकि खुद अशोक गहलोत ने जेएनवीयू यूनिवर्सिटी छात्रसंघ अध्यक्ष का चुनाव लड़ा था. वे सत्तर के दशक में पांच साल एनएसयूआई के प्रदेशाध्यक्ष रहे. फिर छात्र राजनीति से निकलकर वे तीन बार प्रदेश के सीएम बने हैं. वहीं वर्तमान में केंद्रीय जल मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत 1992-93 में इसी यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ अध्यक्ष रहे. इसी तरह जेएनवीयू में अध्यक्ष रहे मेघराज लोहिया राज्यमंत्री और बाबू सिंह शेरगढ़ से विधायक बने हैं.

उदयपुर की सुखाड़िया यूनिवर्सिटी की छात्र राजनीति से भी कई बड़े नेता निकले हैं. विधानसभा अध्यक्ष सीपी जोशी पहली बार सुखाड़िया यूनिवर्सिटी में 1975 में चुनाव लड़े थे. राजसमंद सांसद रहे हरिओम सिंह राठौड़ भी सुविवि छात्रसंघ अध्यक्ष रहे हैं. इसी तरह यूडीएच मंत्री श्रीचंद कृपलानी 1978 में चित्तौड़गढ़ सरकारी कॉलेज के अध्यक्ष रहे हैं. वसुंधरा राजे सरकार में गृहमंत्री रहे गुलाबचंद चंद कटारिया एबीवीपी के प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं. वहीं बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष सीपी जोशी 1994-95 चित्तौड़गढ़ राजकीय महाविद्यालय में छात्रसंघ उपाध्यक्ष और अगले ही साल छात्रसंघ के अध्यक्ष बने. तब वे एनएसयूआई से चुनाव जीते थे. इसके अलावा वासुदेव देवनानी और अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी समेत कई नेता छात्र राजनीति से ही निकले हैं.


नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़ ने कहा है कि छात्रसंघ चुनाव जैसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का गला घोंटना ना तो लोकतंत्र के लिए ठीक है और ना ही राजनीतिक परंपराओं के लिए। इतिहास गवाह है कि जंग-ए-आजादी से लेकर लोकनायक जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति तक छात्र आंदोलनों ने तत्कालीन जनविरोधी व्यवस्था को उखाड़ कर फेंका था.नागौर के सांसद हनुमान बेनीवाल ने प्रदेश में विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में छात्रसंघ चुनाव नहीं करवाने का निर्णय पूर्ण रूप से गलत बताया है. यह सरकार की हठधर्मिता है, जो किसी किसी को आगे बढ़ते हुए देखना पसंद नही कर रही है. छात्र संघ चुनावों में थर्ड फ्रंट के बढ़ते बोलबाले से सरकार घबरा गई है.

दूसरी ओर प्रदेश सरकार का कहना है कि लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों का उल्लघंन होने और कुलपतियों की सिफारिश पर यह रोक लगाई गई है. कुलपतियों ने स्पष्ट कहा है कि चुनाव में धन बल और बाहुबल का प्रयोग हो रहा है, जो कि लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों का उल्लंघन है. यदि चुनाव करवाए जाते हैं तो पढ़ाई भी प्रभावित होगी. सरकार के फैसले के बाद राजस्थान में 500 से ज्यादा कालेजों में छात्रसंघ चुनाव नहीं होंगे. इससे करीब छह लाख छात्र वोट नहीं डाल पाएंगे.

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