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अजरबैजान-आर्मीनिया युद्ध में क्यों दुश्मनी भूल साथ आ जाते हैं पाकिस्तान और इजरायल

अजरबैजान और आर्मीनिया के बीच फिर युद्ध विराम हो गया है. ये पहली बार नहीं है जबकि दोनों देश एक दूसरे के खिलाफ युद्ध के मैदान में भिड़े हैं.  पिछली बार दोनों देश करीब तीन साल पहले भिड़े थे. तब दोनों के बीच 06 हफ्ते का जबरदस्त संघर्ष हुआ था, जिसमें 2000 से ज्यादा लोगों की जानें गईं थीं. इस बार ये लड़ाई बमुश्किल एक हफ्ते ही चली. इस लड़ाई में रूस एक ओर दिखता है तो तुर्की, पाकिस्तान और इजरायल जैसे देश दूसरी ओर. दिलचस्प बात ये है कि अजरबैजान की मदद के लिए इजरायल सारी दुश्मनी भुलाकर पाकिस्तान के साथ खड़ा होता है. ये बात हर चर्चा का विषय भी होती है कि आखिर ऐसा क्या हो जाता है, जो दो कट्टर दुश्मन साथ हो जाते हैं जबकि अंतरराष्ट्रीय मंच पर दोनों एक दूसरे को मान्यता तक नहीं देते. दोनों में कोई कूटनीतिक रिश्ता नहीं.

दोनों देश के बीच की इस जंग को नोगोर्नो-काराबाख की जंग (Nogorno-Karabakh War) भी कहते हैं. इस बार इस जंग में 200 से ज्यादा जानें गईं. हम आपको यहां ये बताएंगे कि ये दोनों देश क्यों अक्सर युद्ध के मैदान में आमने-सामने आ जाते हैं. दोनों देशों के बीच जंग में कौन सा देश किस ओर खड़ा हो जाता है.

आर्मीनिया और अजरबैजान दोनों सोवियत संघ में शामिल रहे हैं. 90 के दशक के आखिर में सोवियत संघ के भंग होने के बाद दोनों अलग देश के तौर पर अस्तित्व में आए. दरअसल नोगोर्नो काराबाख दोनों देशों के बीच एक ऐसा सीमाई इलाका है, जिस पर दोनों ही दावा करते रहे हैं. इसी वजह से दोनों में युद्ध की स्थिति आती रही है.

जब भी युद्ध होता है तब दोनों देशों में कोई एक देश इस विवादित इलाके के कुछ हिस्सों पर कब्जा कर लेता है. दूसरा देश इसे वापस पाने के लिए फिर भिड़ जाता है. दोनों देशों ने सीमा पर बड़े पैमाने पर सेना और हथियार इकट्ठे कर रखे हैं.

आर्मेनिया और अजरबैजान के मामले पर नजर डालें तो पाएंगे कि ये देश कभी सोवियत संघ का हिस्सा थे. नब्बे के दशक में सोवियत संघ के टूटने के बीच ये देश आजाद हो गए. तब सोवियत ने ही बंटवारा करते हुए नागोर्नो-काराबाख इलाका अजरबैजान को दे दिया. ये बात और है कि खुद नागोर्नो-काराबाख की संसद ने आधिकारिक तौर पर अपने को आर्मेनिया का हिस्सा बनाने के लिए वोट किया था.

आर्मेनिया के लिए इस क्षेत्र की दिलचस्पी इसलिए है क्योंकि नागोर्नो-काराबाख क्षेत्र की ज्यादातर आबादी आर्मीनियाई मूल की ही है. यही वजह है कि इस क्षेत्र के लोगों ने लगातार खुद को आर्मेनिया से मिलाने की बात की. हालांकि उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई. इसके बाद से काराबाख इलाके के लोगों ने अजरबैजान के खिलाफ आंतरिक लड़ाई शुरू कर दी.

गुस्साए हुए अजरबैजान ने काराबाख के लोगों पर कत्लेआम मचा दिया. इधर आर्मेनिया अंदर ही अंदर अपने लोगों यानी काराबाख लोगों की मदद कर रहा था. ये एक तरह से भारत-पाक विभाजन के बाद की स्थिति थी, जो लगभग दशकभर चली. इसके बाद फ्रांस, रूस और अमेरिका जैसे देशों की मध्यस्थता में दोनों देशों के बीच लंबी बातचीत चली और कई समझौते भी हुए लेकिन तब भी छुटपुट संघर्ष चलता रहा.

अब ये संघर्ष एकदम से बढ़ गया है. किसी भी देश को ये नहीं पता कि ताजा मामले में लड़ाई की शुरुआत किसने की, वहीं दोनों देश एक-दूसरे पर अपने लोगों और सैन्य हथियार तबाह करने का आरोप लगा रहे हैं. इन दूर-दराज बसे देशों की लड़ाई में पूरी दुनिया के देश सक्रिय हो गए हैं.

अजरबैजान में तुर्की लोगों की आबादी ज्यादा है इसलिए तुर्की के राष्ट्रपति की सहज ही दिलचस्पी अजरबैजान का साथ देने की है. वो लगातार इसे अपना दोस्त देश बताते हुए आर्मेनिया के खिलाफ बोल रहा है. दूसरी ओर आर्मेनिया पूर्व सोवियत संघ का हिस्सा है और रूस से उसके बढ़िया संबंध हैं. यहां तक कि रूस ने दोस्ती के प्रतीक के तौर पर आर्मेनिया में अपना मिलिट्री बेस बना रखा है. कलेक्टिव सिक्योरिटी ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन के सदस्य होने के कारण दोनों ही देश एक-दूसरे का बचाव करने को तैयार रहते हैं. यही वजह है कि रूस आर्मेनिया के साथ है.
लड़ाई ने दो दुश्मन देशों इजरायल और पाकिस्तान को भी साथ खड़ा दिया है. ये दोनों ही अजरबैजान के साथ हैं. इसमें पाकिस्तान का पक्ष तो साफ दिखता है कि वो लड़ाई में तुर्की के साथ खड़ा दिखना चाहता है. अब चूंकि तुर्की अजरबैजान के साथ है, लिहाजा पाकिस्तान भी उसके साथ है. न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट में अज्ञात स्त्रोतों के हवाले से कहा गया कि पाकिस्तान से आतंकी हथियारों समेत अजरबैजान पहुंच रहे हैं ताकि आर्मेनिया के खिलाफ हल्ला बोल सकें. यहां तक कि पाकिस्तानी मीडिया और सोशल मीडिया पर भी अजरबैजान के पक्ष में पोस्ट लिखे जा रहे हैं.

इससे साफ दिखता है कि पाकिस्तान अपने नए आका तुर्की को खुश करने के लिए अजरबैजान का दोस्त बन गया है. बता दें कि आर्मेनिया में जहां 94 फीसदी आबादी ईसाई है, वहीं अजरबैजान में 97 फीसदी आबादी मुस्लिम है. ये भी पाकिस्तान के सपोर्ट की एक वजह हो सकती है.

अजरबैजान ने कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान के रुख का खुलकर समर्थन किया था. पाक के लिए ये सारी वजहें किसी देश का साथ देने के लिए काफी लगती हैं. यूरेशियन टाइम्स की रिपोर्ट ने पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के हवाल से बताया है कि पाकिस्तान अपने भाई जैसे देश अजरबैजान के साथ खड़ा है.

तुर्की और पाकिस्तान के अलावा इजरायल भी अजरबैजान के साथ आ चुका है. बता दें कि इजरायल के तुर्की और पाकिस्तान दोनों ही देशों के बेहद तनावपूर्ण रिश्ते रहे हैं. यहां तक कि इजरायल और पाकिस्तान तो एक-दूसरे के नागरिकों तक को मान्यता नहीं देते. इसी तरह से तुर्की भी पूरी तरह से एंटी-इजरायल है. वो इस एकमात्र यहूदी देश को खत्म करने की फिराक में रहता है. ऐसे में इजरायल का अपने दुश्मनों के साख खड़ा होना चौंकाता है.

हालांकि इसकी वजह अजरबैजान और इजरायल के पुराने रिश्ते हैं. अजरबैजान में सोवियत संघ के बाद से मची उथल-पुथल के बीच इजरायल हमेशा उसके साथ रहा और दोनों देशों के बीच कूटनीतिक से लेकर व्यापारिक संबंध भी रहे. कुल मिलाकर अजरबैजान ऐसा अकेला मुस्लिम-बहुल देश है जिससे इजरायल की दोस्ती रही. यही वजह है कि वो अब भी उसके साथ है.

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