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पुलिस अब 3 महीने हिरासत में रख सकेगी:जबरन अप्राकृतिक संबंधों के लिए प्रावधान नहीं; नए कानूनों पर उठ रहे 8 बड़े सवाल

1 जुलाई 2024 से लागू तीन नए क्रिमिनल कानूनों के कई प्रावधानों में ऐसे ग्रे एरिया हैं, जिन पर सवाल खड़े हो रहे हैं। मसलन- पुलिस हिरासत की समय-सीमा बढ़ाकर 90 दिन करने से जमानत का अधिकार प्रभावित हो सकता है, एडल्ट्री का प्रावधान पीछे के रास्ते से जारी रखा गया है और दोषी पुरुष को ही माना जाएगा, जबरन अप्राकृतिक संबंधों के लिए कोई प्रावधान नहीं किया गया है।

1. पुलिस रिमांड 15 दिन से बढ़ाकर 90 दिन करना

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता यानी BNSS में पुलिस हिरासत की समय-सीमा को 15 दिन से बढ़ाकर 90 दिन कर दिया गया है। अब 90 दिन की रिमांड को एक साथ या टुकड़ों-टुकड़ों में लिया जा सकता है।
  • इसका मतलब है कि आरोपी को तीन महीने तक पुलिस के कब्जे में रखा जा सकता है। अगर 15 दिन पूरे होने से पहले बेल मिल गई, तो पुलिस एक दिन पहले रिमांड के लिए आवेदन दे सकती है और बेल रद्द हो जाएगी।
  • इससे पहले CrPC की धारा 167(2) के अनुसार किसी आरोपी को पुलिस अधिकतम 15 दिन ही रिमांड में रख सकती थी। इसके बाद उसे न्यायिक हिरासत यानी जेल में भेजना अनिवार्य था। इसका उद्देश्य था- पुलिस को सही तरीके से समय पर जांच पूरी करने लिए मोटिवेट करना। वहीं रिमांड में यातना और जबरन कबूलनामे की आशंका को कम करना था।
  • यह जमानत के अधिकार पर अतिक्रमण जैसाः यह जमानत के अधिकार पर अतिक्रमण जैसा होगा। पुलिस लोगों को ज्यादा प्रताड़ित कर सकेगी। अगर कोई 90 दिनों तक रिमांड पर रहेगा तो वकील का खर्च भी बढ़ेगा।
  • साल 2018 में जोसेफ शाइन वर्सेज यूनियन ऑफ इंडिया केस में सुप्रीम कोर्ट ने IPC की धारा 497 यानी एडल्ट्री के कानून को असंवैधानिक बताया था। सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि ये कानून महिलाओं की डिग्निटी के अधिकार का उल्लंघन करता है, जो उसे संविधान के आर्टिकल 21 में मिला है। इसके बाद संसदीय उपसमिति ने सिफारिश की थी कि एडल्ट्री के कानून में बदलाव कर इसे जेंडर न्यूट्रल बनाया जाए।
  • BNS का सेक्शन 84 कहता है कि किसी शादीशुदा महिला को धमकाकर, फुसलाकर उससे अवैध संबंध बनाने के इरादे से ले जाना अब भी अपराध माना गया है। ये IPC में एडल्ट्री का ही हिस्सा था।
  • पीछे के रास्ते से एडल्ट्री कानूनी जारीः BNS में एडल्ट्री के कानून को तो खत्म कर दिया गया, लेकिन उसके सब-सेक्शन को अलग धारा बनाकर शामिल किया गया है। मतलब सुप्रीम कोर्ट के फैसले को नहीं माना गया और न ही संसदीय उपसमिति की सिफारिश को माना गया। दिक्कत ये होगी कि यदि कोई शादीशुदा महिला अपनी मर्जी से भी किसी के साथ संबंध बनाती है, तो भी पुरुष को ही आरोपी बनाया जाएगा। ये IPC में भी था, जिसे नए कानून में भी पीछे के रास्ते से जारी रखा गया है। इस कानून के जरिए अभी भी महिलाओं की डिग्निटी के अधिकार का उल्लंघन हो रहा है।

    3. पुरुषों और ट्रांसजेंडरों के साथ बलात्कार का कोई कानून नहीं

  • BNS में 'अप्राकृतिक सेक्स' शीर्षक वाली IPC की धारा 377 को पूरी तरह से हटा दिया है। अब एक पुरुष का दूसरे पुरुष से रेप या ट्रांसजेंडर से रेप के पीड़ितों के लिए कोई कानून नहीं है।
  • अप्राकृतिक संबंधों से पीड़ितों के पास विकल्प नहींः संसदीय उप-समिति ने सुझाव दिया था कि अगर कोई पुरुष दूसरे पुरुष के साथ बिना सहमति के अप्राकृतिक संबंध बनाता है या कोई पति अपनी पत्नी से जबरन अप्राकृतिक सेक्स करता है तो उस पर 377 लागू किया जा सके। हालांकि, BNS में इसका कोई प्रावधान नहीं किया गया। यानी अप्राकृतिक संबंध, समलैंगिकता आदि के पीड़ितों के पास कोई उपाय नहीं होगा।

    4. आरोपी का नाम पुलिस स्टेशन में डिजिटल तरीके से डिस्प्ले होगा

  • BNSS की धारा 37 में प्रावधान है कि हर पुलिस स्टेशन और जिले में एक नॉमिनेटेड पुलिस अफसर होगा। यह अफसर गिरफ्तार किए आरोपी का नाम और पता, उसके खिलाफ लगाए गए अपराध की जानकारी रखने के लिए जिम्मेदार होगा।
  • वह ये भी सुनिश्चित करेगा कि यह जानकारी हर पुलिस स्टेशन और जिला मुख्यालय में डिजिटल मोड सहित किसी भी तरीके से प्रमुखता से डिस्प्ले की जाए।
  • निजता के अधिकार का अतिक्रमणः यह प्रावधान आरोपी व्यक्ति की निजता के अधिकार और दोषी साबित होने तक निर्दोषता के अनुमान के अधिकार पर गंभीर अतिक्रमण है। जब किसी आरोपी की पर्सनल डिटेल डिजिटल मोड से डिस्प्ले हाेगी, तब आम लोग आरोपी के दोषी होने या अपराध में शामिल होने जैसा मान सकते हैं। जब आरोपी की जानकारी सार्वजनिक होगी तो बड़े पैमाने पर आरोपी की जान काे खतरा हो सकता है।

    5. सरकारी कर्मचारी को ऑफिशियल ड्यूटी से रोकने के लिए सुसाइड का प्रयास अपराध

  • भारतीय न्याय संहिता की धारा 226 के मुताबिक किसी पब्लिक सर्वेंट को ऑफिशियल ड्यूटी से रोकने के लिए सुसाइड का प्रयास करना अब अपराध होगा।
  • अगर सरकारी अफसर या कर्मचारी कोई लीगल कार्रवाई करना चाहता है और उसे कार्रवाई करने से रोकने के लिए कोई भूख हड़ताल, आत्महत्या की धमकी या प्रयास करता है तो उसे अपराध माना जाएगा। इसमें एक साल की सजा और जुर्माना या दोनों हो सकता है।
  • भूख हड़ताल नहीं कर पाएंगे: अगर कोई व्यक्ति किसी सरकारी फैसले के खिलाफ भूख हड़ताल करता है तो उसे आत्महत्या का प्रयास माना जा सकता है। उसे इस कानून के तहत गिरफ्तार किया जा सकता है। इससे उसके विरोध करने का अधिकार भी छिन सकता है।

    6. पहली बार कम्युनिटी सर्विस का जिक्र सजा के तौर पर

  • BNS और BNSS में एक नई सजा ‘कम्युनिटी सर्विस’ का जिक्र किया गया है। BNS की धारा 4 (F) में कहा गया है कि मृत्युदंड, उम्रकैद, कठोर और साधारण कैद जैसी सजाओं के बीच 'कम्युनिटी सर्विस' लगाई जा सकती है।
  • BNSS की धारा 23 में भी 'कम्युनिटी सर्विस' के बारे में बताया गया है। 'कम्युनिटी सर्विस' का अर्थ वह कार्य होगा, जिसे कोर्ट किसी दोषी को सजा के तौर पर करने का आदेश दे सकता है, जिससे समाज को लाभ हो
  • कम्युनिटी सर्विस परिभाषित नहींः दोनों ही कानूनों में कहीं भी यह नहीं बताया गया है कि 'कम्युनिटी सर्विस' क्या होगी। संसद की स्थायी समिति ने विशेष रूप से सिफारिश की थी कि 'कम्युनिटी सर्विस' शब्द को विशेष रूप से परिभाषित किया जाना चाहिए, ताकि भविष्य में कानून को लागू करने को लेकर पैदा होने वाले भ्रमों से बचा जा सके।

    पुलिस FIR दर्ज करने में कर सकती है देरी: इससे आम आदमी को भी परेशानी होगी। ऐसे मामलों में प्राथमिक जांच का बहाना देकर पुलिस कर्मचारी FIR दर्ज करने में देरी कर सकते हैं। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट तौर पर ये कहा था कि संज्ञेय अपराधों में सजा की परवाह किए बिना पुलिस अधिकारी को FIR दर्ज करना जरूरी है। प्रारंभिक जांच केवल शिकायतों में ही की जा सकती है। इसका मतलब ये है कि BNSS की ये धारा सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ है।

    7. FIR से पहले प्राथमिक जांच करेगी पुलिस

  • साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने ललिता कुमार बनाम उत्तर प्रदेश सरकार के मामले में फैसला दिया था कि संज्ञेय अपराध का पता चलने पर FIR दर्ज होनी चाहिए, लेकिन अपवाद के तौर पर केवल कुछ मामलों में ही FIR के पहले प्राथमिक जांच की छूट दी गई थी।
  • अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 173(3) में ऐसे संज्ञेय अपराध जिनमें 3 से 7 साल की सजा है, उनकी FIR के पहले प्राथमिक जांच करने की बात कही गई है।
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  • 8. गैरहाजिरी में मुकदमा

  • BNSS की धारा 355(1) में किसी भी अपराध के आरोपी पर उसकी गैरहाजिरी में मुकदमा चलाया जा सकता है और दोषी ठहराया जा सकता है।
  • निष्पक्षता पर सवाल होंगेः यदि ऐसा होता है तो ये कैसे कहा जा सकता है कि उसके मामले में निष्पक्ष सुनवाई हुई है।

    ऊपर दिए गए 8 ग्रे एरिया से इतर भी कई तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं। मसलन- कई धाराओं के नाम हिंदी में है। इससे गैर-हिंदी भाषी प्रदेशों में दिक्कत हो सकती है। कर्नाटक, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल ने इस पर आपत्ति जताई है। तीनों सरकार ने इस बात पर ऑब्जेक्शन जताया है कि तीनों कानूनों के नाम हिंदी में क्यों हैं।

    कर्नाटक सरकार ने केंद्र से कहा है कि आर्टिकल 348 के अनुसार संसद में जो विधेयक कानून के लिए पेश होगा वह अंग्रेजी में भी होना चाहिए। ‘द ऑफिशियल लैंग्वेज एक्ट 1963’ कहता है कि जिस राज्य की भाषा हिंदी नहीं है, उसका संवाद अंग्रेजी में होगा। पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने सरकार से मांग की थी कि इसे अभी लागू न किया जाए

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