राजस्थान : के हाड़ौती क्षेत्र का बारां जिला न केवल सांस्कृतिक दृष्टिकोण से समृद्ध है, बल्कि यहां की अनूठी परंपराएं इसे एक अलग पहचान देती हैं। इन्हीं में से एक है ‘धनुष लीला’, जो अटरू कस्बे में 150 वर्षों से लगातार आयोजित हो रही है और इस वर्ष इसका 151वां लोकोत्सव मनाया गया।
इस रामलीला की सबसे बड़ी खासियत है कि इसमें चार मंचों का उपयोग एक साथ होता है। परशुराम का पात्र बीच में बैठता है और चारों मंचों के बीच दौड़ते हुए संवाद बोलता है। जब वह मंच की ओर दौड़ता है, तो दर्शकों की उत्सुकता चरम पर पहुंच जाती है। यह दृश्य नाट्य और भक्ति दोनों का एक अद्भुत संगम होता है।
इस कार्यक्रम का मुख्य आयोजन रामनवमी के दिन होता है। दिन में जुलूस निकाला जाता है जिसमें ‘सर कट्या’ और ‘धड़ कट्या’ की सवारी आकर्षण का केंद्र होती है। इसके बाद मुख्य मंच पर भगवान राम द्वारा शिव धनुष भंग करने की लीला का मंचन होता है।
इस आयोजन की शुरुआत गणगौर की तीज पर होती है। पहले जहां बैलगाड़ियों पर झांकियां सजाई जाती थीं, वहीं अब ट्रैक्टर-ट्रॉली और LED लाइट्स व जनरेटर से सजावट होती है। पहले अलसी और तिल के तेल से जलाए गए बुंदों से रोशनी की जाती थी, अब आधुनिक रोशनी की व्यवस्था होती है।
परशुराम का श्रृंगार एक विशेष कक्ष में होता है, जहां एक विशेष आईना होता है जो साल में सिर्फ इसी दिन निकाला जाता है। जैसे ही पात्र खुद को आईने में देखता है, उसके अंदर के 'भाव' प्रकट हो जाते हैं और वह मंच की ओर दौड़ जाता है।
धनुष लीला के संवाद हाड़ौती की लोकभाषा में एक 'बही' में लिखे जाते हैं। संवाद पहले पात्र को सुनाए जाते हैं, फिर वह अपनी शैली में बोलता है और अंत में कोरस उसे दोहराता है — हर संवाद तीन बार बोला जाता है।
एक समय था जब जैसे ही राम का पात्र धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाता था, भीड़ में से कोई युवक दौड़कर धनुष तोड़ देता था, यह मान्यता रही कि धनुष का टुकड़ा घर ले जाने से विवाह शीघ्र होता है। हालांकि अब इसे रोकने के लिए सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए गए हैं।
कुछ झांकियों का संबंध तंत्र क्रियाओं से भी जोड़ा जाता है, जो आयोजन में एक रहस्यात्मक और पवित्र वातावरण बनाए रखता है। राम-सीता के विवाह का मंगलगीत गाती महिलाएं, दर्शकों के साथ जुड़ाव का सुंदर दृश्य प्रस्तुत करती हैं।
धनुष लीला अटरू केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि यह लोक नाट्य, संस्कृति और परंपरा का जीवंत उत्सव है जो पीढ़ियों से चले आ रहे विश्वास और श्रम का प्रतीक है। राजस्थान की इस विरासत को संरक्षण और प्रचार की आवश्यकता है ताकि आने वाली पीढ़ियां भी इस गौरवशाली परंपरा से जुड़ सकें।
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