राजस्थान विधानसभा : के बीते छह दिन केवल राजनीतिक खींचतान और टकराव की भेंट चढ़ गए। जिस सदन में जनता की समस्याओं पर मंथन होना चाहिए था, वहां सिर्फ हंगामा, नारेबाजी और आरोप-प्रत्यारोप गूंजते रहे। इन छह दिनों में करोड़ों रुपये खर्च हुए, लेकिन सड़क, बिजली, पानी, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे बुनियादी मुद्दों पर चर्चा नहीं हो सकी।
इस गतिरोध की शुरुआत तब हुई जब विधानसभा अध्यक्ष ने कांग्रेस के छह विधायकों को निलंबित कर दिया। इसके विरोध में कांग्रेस ने विधानसभा के भीतर ही धरना दे दिया। कांग्रेस विधायकों ने रातभर सदन में डेरा डाल दिया, वहीं पार्टी कार्यकर्ताओं ने विधानसभा के बाहर प्रदर्शन किया।
सरकार का रुख स्पष्ट था—निलंबित विधायक माफी मांगें, तभी कार्यवाही आगे बढ़ेगी। दूसरी ओर, कांग्रेस की मांग थी कि मंत्री अविनाश गहलोत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर की गई टिप्पणी को सदन की कार्यवाही से हटाया जाए। दोनों पक्ष अपनी-अपनी जिद पर अड़े रहे, जिससे गतिरोध खत्म होने की कोई सूरत नहीं दिखी।
लगातार छह दिन के गतिरोध के बाद आखिरकार कांग्रेस के छह विधायकों का निलंबन रद्द कर दिया गया, और मंत्री की टिप्पणी को कार्यवाही से हटा दिया गया। मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा और नेता प्रतिपक्ष टीकाराम जूली ने इसे लोकतंत्र की जीत बताया। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि यह समाधान पहले क्यों नहीं निकाला गया?
इन छह दिनों में न केवल विधानसभा का बहुमूल्य समय बर्बाद हुआ, बल्कि जनता के मुद्दे भी पीछे छूट गए। यदि यही समझौता पहले हो जाता, तो इन छह दिनों में प्रदेश की समस्याओं पर ठोस चर्चा हो सकती थी। यह जरूरी है कि आगे से सदन को सिर्फ राजनीतिक लड़ाइयों का अखाड़ा न बनाकर, जनता की समस्याओं के समाधान के लिए उपयोग किया जाए।
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